Ibn E Insha Shayari की दुनिया का वो सितारा, वो नाम जो न सिर्फ इन्तेहाई मशहूर थे बतौर शायर बल्कि एक उम्दा इंसान और दिल के बेहद सच्चे इंसान के तौर पे जिनकी पहचान हिन्दुस्तान और पाकिस्तान, दोनों मुल्कों में बराबर की जाती है.
इब्न-ए-इंशा का जन्म भारत के पंजाब राज्य के जालंधर शहर में 15 जून 1927 को हुआ था. Ibn E Insha का मूल यानि वास्तविक नाम शेर मोहम्मद ख़ान था.
भारत में अपनी प्रारंभिक शिक्षा प्राप्त करने के बाद ये विभाजन के समय पकिस्तान चले गएँ और अपनी बाकी पढाई वही से की.
मिजाज़ के मस्तमौला Ibn E Insha ने न सिर्फ कभी न ख़त्म होने वाले शेर कहे हैं, बल्कि उनका लेखन व्यंग्य और हास्य को लेकर भी उतना ही मशहूर हुआ, जितने की Ibne E Insha Shayari और इब्न-ए-इंशा की ग़जलें.

“कल चौदहवीं की रात थी शब भर रहा चर्चा तिरा
कुछ ने कहा ये चाँद है कुछ ने कहा चेहरा तिरा”
इस ग़ज़ल से वो ज़बरदस्त मशहूर हुए थे पूरी दुनिया में हालांकि मिजाज़ से मस्तमौला Ibn E Insha ने कभी मशहूर होने के लिए कुछ नहीं किया.
Ibn E Insha ने पहला शेर उस वक़्त कहा था जब वो महज़ ८ साल के थे, और अपनी पहली किताब उन्होंने तब छपवाई जब वो 60 साल के हुए.
आप समझ सकते हैं कि, नाम कमाने के पीछे Ibn E Insha साहब कभी नहीं रहे. पाकिस्तान, कराची कि सड़कों पे उन्हें मूंगफली खाते और घूमते हुए देखा जाता था. दिल के बेहद सच्चे और नाज़ुक इन्सान Ibn E Insha अपनी शायरी और ग़ज़लों और नज़्मों में एक बेहद ही अलग सा माहोल और फिज़ा बनाते हैं.
उनके अल्फाजों में सूफियाना लहजा और उनके कहने के सीधे अंदाज़ सुनने और पढने वालों को अपनी कैद में कर लेते हुए प्रतीत होते हैं.
दुनिया भर में आज भी हजारों लोग, Ibn E Insha Books और Ibn E Insha Poems ko dhoondh dhoondh ke padhte hain. Ibn E Insha Ghazal, शेर, शायरी, अशआर इन सारी रूपों में अपनी एक अमिट छाप छोड़ने के लिए जाने जाते हैं,
अगर हम Ibn E Insha Famous Poetry की बात करें तो, सब माया है इब्ने इंशा, कल चौदहवीं की रात थी, Ibn E Insha Farz Karo, जैसे अनगिनत रचनाएं हैं आप थकेंगे नहीं उनको सुनते, पढ़ते हुए ये मेरी गारंटी है आपको.
Ibn E Insha ने अपनी रचनाओं में हिंदी शब्दों का खुल के इस्तेमाल किया है, चाँद से उन्हें खासा प्यार था. Ibn E Insha की रूमानी ग़जलें एक रूहानी अहसास कराते हुए आपको एक अलग ही दुनिया में ले जाती है.
इंशा की गजल आपके दिलो दिमाग पर अलग ही किस्म का माहौल पैदा करती है, और आप उससे बाहर नहीं आ सकते. यही तो खासियत थी इब्ने इंशा की ।
अगर आप जानना चाहते हों कि, इब्ने इंशा का इंतकाल किस मुल्क में हुआ था? तो जवाब है London.
11 जनवरी 1978 कप इब्न-ए-इंशा इस दुनिया को अलविदा कह गए, उस वक़्त वो लंदन में अपना इलाज़ करवा रहे थे.
इब्न-ए-इंशा, जैसे लोग कही मरते नहीं हैं, वो इस पूरी दुनिया के खतम न होने तक सबके दिलों में जिंदा रहते हैं, अपने अल्फ्फाज़ और अपनी जुबां के जरिये.
आज के इस पोस्ट में आप Ibn E Insha Shayari की शायरी, नज़्म और ग़ज़लों को पढ़ते हुए ये साफ़ साफ़ महसूस करेंगे कि, उनकी जुबां का जादू कैसे आपके सर पे चढ़ता है.
आइये इसी के साथ मेरे सबसे पसंदीदा शायर जनाब इब्न-ए-इंशा की शायरी का लुत्फ़ लेते हैं हम सब.
Ibn E Insha Shayari

कल चौदहवीं की रात थी शब भर रहा चर्चा तिरा
कुछ ने कहा ये चाँद है कुछ ने कहा चेहरा तिरा
Kal chaudahvin ki raat thi shab bhar raha charcha tira
Kuchh ne kaha ye chaand hai kuchh ne kaha chehra tira
जब शहर के लोग न रस्ता दें
क्यूँ बन में न जा बिसराम करे
दीवानों की सी न बात करे तो
और करे दीवाना क्या
Jab shahar ke log na rasta den
Kyun ban men na ja bisram kare
Diwanon key si na baat kare to
Aur care diwana kya
इक साल गया इक साल नया है आने को
पर वक़्त का अब भी होश नहीं दीवाने को
Ek saal gaya ek saal naya hai aane ko
Par wakt ka ab bhi hosh nahin deewane ko
जल्वा-नुमाई बेपरवाई हाँ यही रीत जहाँ की है
कब कोई लड़की मन का दरीचा खोल के बाहर झाँकी है
Jalva-numai beparavai haan yahi rit jahan ki hai
Kab koi ladki man ka daricha khol ke bahar jhanki hai

एक दिन देखने को आ जाते
ये हवस उम्र भर नहीं होती
Ek din dekhane ko a jaate
Ye havas umr bhar nahin hot
‘मीर’ से बैअत की है
तो ‘इंशा’ मीर की बैअत भी है ज़रूर
शाम को रो रो सुब्ह करो
अब सुब्ह को रो रो शाम करो
‘Meer’ se baiyat ki hai
Toh ‘insha’ meer key baiyat bhi hai zaroor
Shaam ko ro ro subh karo
Ab subah ko ro ro shaam karo
Ibn E Insha Shayari 2 Lines

हम भूल सके हैं न तुझे भूल सकेंगे
तू याद रहेगा हमें हाँ याद रहेगा
Ham bhool sake hain na tujhe bhula sakenge
Tu yaad rahega hamen han yaad rahega
इस शहर में किस से मिलें
हम से तो छूटीं महफ़िलें
हर शख़्स तेरा नाम ले हर शख़्स दीवाना तिरा
Is shahar men kis se milen
Hum se to chhutin mahafilen
Har shakhs tera naam le
Har shakhs diwana tira
Ibn E Insha Quotes
अहल-ए-वफ़ा से तर्क-ए-तअल्लुक़ कर लो पर इक बात कहें
कल तुम इन को याद करोगे कल तुम इन्हें पुकारोगे
Ahl-e-wafa se tark-a-talluk kar lo par ek baat kahen
Kal tum in ko yaad karoge kal tum inhen pukaaroge
कब लौटा है बहता पानी बिछड़ा साजन रूठा दोस्त
हम ने उस को अपना जाना जब तक हाथ में दामाँ था
Kab lauta hai bahata paani bichhada sajan rutha dost
Hum ne us ko apana jana jab tak haath mein daamaan tha
सुन तो लिया किसी नार की ख़ातिर काटा कोह निकाली नहर
एक ज़रा से क़िस्से को अब देते क्यूँ हो तूल मियाँ
Sun to liya kisi naar ki khatir kata koh nikali nahar
Ek zara se kisse ko ab dete kyun ho tool mian

वहशत-ए-दिल के ख़रीदार भी नापैद हुए
कौन अब इश्क़ के बाज़ार में खोलेगा दुकाँ
Wahshat-ae-dil ke kharidaar bhi napaid hue
Kaun ab ishq ke bazar mein kholega dukaan
‘इंशा’-जी उठो अब कूच करो
इस शहर में जी को लगाना क्या
वहशी को सुकूँ से क्या मतलब
जोगी का नगर में ठिकाना क्या
‘Insha’-ji utho ab kooch caro
Is shahar men ji ko lagaana kya
Wahshi ko sukun se kya matlab
Jogi ka nagar men thikana kya
हम घूम चुके बस्ती बन में
इक आस की फाँस लिए मन में
Hum ghoom chuke basti ban mein
Ek aas ki faans lie mann mein
रात आ कर गुज़र भी जाती है
इक हमारी सहर नहीं होती
Raat a kar guzar bhi jaati hai
Ek hamaari sahar nahin hoti
दिल हिज्र के दर्द से बोझल है
अब आन मिलो तो बेहतर हो
इस बात से हम को क्या मतलब
ये कैसे हो ये क्यूँकर हो
Dil hijr ke dard se bojhal hai
Ab an milo to behtar ho
Is baat se hum ko kya matlab
Ye kaise ho ye kyunkar ho
यूँही तो नहीं दश्त में पहुँचे यूँही तो नहीं जोग लिया
बस्ती बस्ती काँटे देखे जंगल जंगल फूल मियाँ
Yunhi toh nahi dasht mein pahunche
Yunhi toh nahi jog liya
Basti basti kaante dekhe
Jungle jungle fool mian

हक़ अच्छा पर उस के लिए कोई और मिरे तो और अच्छा
तुम भी कोई मंसूर हो जो सूली पे चढ़ो ख़ामोश रहो
Haq achchha per us ke liye koi aur mire to or achchha
Tum bhi koi mansoor ho jo sooli pay chadho khamosh raho
ये बातें झूटी बातें हैं ये लोगों ने फैलाई हैं
तुम ‘इंशा’-जी का नाम न लो क्या ‘इंशा’-जी सौदाई हैं
Ye baaten jhooti baaten hain ye logon ne failai hain
Tum ‘insha’-ji ka naam na lo kya ‘insha’-ji saudai hain
इब्न-ए-इंशा शायरी
- हुस्न सब को ख़ुदा नहीं देता
हर किसी की नज़र नहीं होती - Husn sab ko khuda nahin deta
Har kisi ki nazar nahin hoti - कूचे को तेरे छोड़ कर जोगी ही बन जाएँ मगर
जंगल तिरे पर्बत तिरे बस्ती तिरी सहरा तिरा - Kooche ko tere chhod kar jogi hi ban jaaen magar
ungle tire parbat tire basti tiri sahara tira - एक से एक जुनूँ का मारा इस बस्ती में रहता है
एक हमीं हुशियार थे यारो एक हमीं बद-नाम हुए - Ak se ek junoon ka maara is basti men rahata hai
Ak hamin hushiyar the yaaro ek hamin bad-naam hue - गर्म आँसू और ठंडी आहें मन में क्या क्या मौसम हैं
इस बग़िया के भेद न खोलो सैर करो ख़ामोश रहो - Garm aansoo or thhndi ahen
Mann mein kya kya mausam hain
Is baghiya k bhed na kholo
Sair karo khamosh raho - कुछ कहने का वक़्त नहीं ये कुछ न कहो ख़ामोश रहो
ऐ लोगो ख़ामोश रहो हाँ ऐ लोगो ख़ामोश रहो - Kuchh kahane ka vakt nahin ye kuchh na kaho khamosh raho
Aye logo khamosh raho han ai logo khamosh raho
बेकल बेकल रहते हो पर महफ़िल के आदाब के साथ
आँख चुरा कर देख भी लेते भोले भी बन जाते हो
Bekal bekal rahate ho per mehfil k adab ke saath
Aankh chura kar dekh bhi lete bhole bhi ban jaate ho
अपने हमराह जो आते हो इधर से पहले
दश्त पड़ता है मियाँ इश्क़ में घर से पहले
Apne hamrah jo ate ho idhar se pahale
Dasht padta hai miyan ishq mein ghar se pahale
आन के इस बीमार को देखे तुझ को भी तौफ़ीक़ हुई
लब पर उस के नाम था तेरा जब भी दर्द शदीद हुआ
Aan ke is bimar ko dekhe tujh ko bhi taufique hui
Lab par us ke naam tha tera jab bhi dard shadid hua
अपनी ज़बाँ से कुछ न कहेंगे
चुप ही रहेंगे आशिक़ लोग
तुम से तो इतना हो सकता है
पूछो हाल बेचारों का
Apni zabaan se kuchh na kahenge
Chup hi rahenge ashiq log
Tum se to itana ho sakta hai
Poocho hall bechaaron ka
बे तेरे क्या वहशत हम को तुझ बिन कैसा सब्र ओ सुकूँ
तू ही अपना शहर है जानी तू ही अपना सहरा है
Be tere kya vahshat hum ko tujh bin kaisa sabr o sukun
Tu hi apana shahar hai jaani tu hi apana sahara hai
Ibn E Insha Ghazal
कल चौदहवीं की रात थी शब भर रहा चर्चा तिरा
कुछ ने कहा ये चाँद है कुछ ने कहा चेहरा तिरा
हम भी वहीं मौजूद थे हम से भी सब पूछा किए
हम हँस दिए हम चुप रहे मंज़ूर था पर्दा तिरा
इस शहर में किस से मिलें हम से तो छूटीं महफ़िलें
हर शख़्स तेरा नाम ले हर शख़्स दीवाना तिरा
कूचे को तेरे छोड़ कर जोगी ही बन जाएँ मगर
जंगल तिरे पर्बत तिरे बस्ती तिरी सहरा तिरा
हम और रस्म-ए-बंदगी आशुफ़्तगी उफ़्तादगी
एहसान है क्या क्या तिरा ऐ हुस्न-ए-बे-परवा तिरा
दो अश्क जाने किस लिए पलकों पे आ कर टिक गए
अल्ताफ़ की बारिश तिरी इकराम का दरिया तिरा
ऐ बे-दरेग़ ओ बे-अमाँ हम ने कभी की है फ़ुग़ाँ
हम को तिरी वहशत सही हम को सही सौदा तिरा
हम पर ये सख़्ती की नज़र हम हैं फ़क़ीर-ए-रहगुज़र
रस्ता कभी रोका तिरा दामन कभी थामा तिरा
हाँ हाँ तिरी सूरत हसीं लेकिन तू ऐसा भी नहीं
इक शख़्स के अशआ’र से शोहरा हुआ क्या क्या तिरा
बेदर्द सुननी हो तो चल कहता है क्या अच्छी ग़ज़ल
आशिक़ तिरा रुस्वा तिरा शाइर तिरा ‘इंशा’ तिरा
Read I Miss You Shayari
कैसी लगी आप सबको इब्ने इंशा की ये ग़ज़ल?
मैंने कहा था न, इब्ने इंशा अल्फ़ाज़ों से रूहानी सुखों देते हैं लोगों को। अब एक और इंशा की गजल देखें।
कुछ कहने का वक़्त नहीं ये कुछ न कहो ख़ामोश रहो
ऐ लोगो ख़ामोश रहो हाँ ऐ लोगो ख़ामोश रहो
सच अच्छा पर उस के जिलौ में ज़हर का है इक प्याला भी
पागल हो क्यूँ नाहक़ को सुक़रात बनो ख़ामोश रहो
उन का ये कहना सूरज ही धरती के फेरे करता है
सर-आँखों पर सूरज ही को घूमने दो ख़ामोश रहो
महबस में कुछ हब्स है और ज़ंजीर का आहन चुभता है
फिर सोचो हाँ फिर सोचो हाँ फिर सोचो ख़ामोश रहो
गर्म आँसू और ठंडी आहें मन में क्या क्या मौसम हैं
इस बगिया के भेद न खोलो सैर करो ख़ामोश रहो
आँखें मूँद किनारे बैठो मन के रक्खो बंद किवाड़
‘इंशा’-जी लो धागा लो और लब सी लो ख़ामोश रहो
- Faiz Ahmad Faiz Shayari पढना बिलकुल न भूलें
Mashoor Ibn E Insha Farz Karo Ghazal

फ़र्ज़ करो हम अहल-ए-वफ़ा हों, फ़र्ज़ करो दीवाने हों
फ़र्ज़ करो ये दोनों बातें झूटी हों अफ़्साने हों
फ़र्ज़ करो ये जी की बिपता जी से जोड़ सुनाई हो
फ़र्ज़ करो अभी और हो इतनी आधी हम ने छुपाई हो
फ़र्ज़ करो तुम्हें ख़ुश करने के ढूँढे हम ने बहाने हों
फ़र्ज़ करो ये नैन तुम्हारे सच-मुच के मय-ख़ाने हों
फ़र्ज़ करो ये रोग हो झूटा झूटी पीत हमारी हो
फ़र्ज़ करो इस पीत के रोग में साँस भी हम पर भारी हो
फ़र्ज़ करो ये जोग बजोग का हम ने ढोंग रचाया हो
फ़र्ज़ करो बस यही हक़ीक़त बाक़ी सब कुछ माया हो
जनाब Ibn E Insha की एक और ग़ज़ल देखें

‘इंशा’-जी उठो अब कूच करो इस शहर में जी को लगाना क्या
वहशी को सुकूँ से क्या मतलब जोगी का नगर में ठिकाना क्या
इस दिल के दरीदा दामन को देखो तो सही सोचो तो सही
जिस झोली में सौ छेद हुए उस झोली का फैलाना क्या
शब बीती चाँद भी डूब चला ज़ंजीर पड़ी दरवाज़े में
क्यूँ देर गए घर आए हो सजनी से करोगे बहाना क्या
फिर हिज्र की लम्बी रात मियाँ संजोग की तो यही एक घड़ी
जो दिल में है लब पर आने दो शर्माना क्या घबराना क्या
उस रोज़ जो उन को देखा है अब ख़्वाब का आलम लगता है
उस रोज़ जो उन से बात हुई वो बात भी थी अफ़साना क्या
उस हुस्न के सच्चे मोती को हम देख सकें पर छू न सकें
जिसे देख सकें पर छू न सकें वो दौलत क्या वो ख़ज़ाना क्या
उस को भी जला दुखते हुए मन इक शो’ला लाल भबूका बन
यूँ आँसू बन बह जाना क्या यूँ माटी में मिल जाना क्या
जब शहर के लोग न रस्ता दें क्यूँ बन में न जा बिसराम करे
दीवानों की सी न बात करे तो और करे दीवाना क्या
अब एक नज़र Ibn E Insha Nazm पे डालते हैं और अल्फ़ाज़ों पे उनकी गहरी पकड़ को देखते समझते हैं।
Ibn E Insha Nazm
इस बस्ती के इक कूचे में इक ‘इंशा’ नाम का दीवाना
इक नार पे जान को हार गया मशहूर है उस का अफ़साना
उस नार में ऐसा रूप न था जिस रूप से दिन की धूप दबे
इस शहर में क्या क्या गोरी है महताब-रुख़े गुलनार-लबे
कुछ बात थी उस की बातों में कुछ भेद थे उस की चितवन में
वही भेद कि जोत जगाते हैं किसी चाहने वाले के मन में
उसे अपना बनाने की धुन में हुआ आप ही आप से बेगाना
इस बस्ती के इक कूचे में इक ‘इंशा’ नाम का दीवाना
ना चंचल खेल जवानी के ना प्यार की अल्हड़ घातें थीं
बस राह में उन का मिलना था या फ़ोन पे उन की बातें थीं
इस इश्क़ पे हम भी हँसते थे बे-हासिल सा बे-हासिल था
इक ज़ोर बिफरते सागर में ना कश्ती थी ना साहिल था
जो बात थी इन के जी में थी जो भेद था यकसर अन-जाना
इस बस्ती के इक कूचे में इक ‘इंशा’ नाम का दीवाना
इक रोज़ मगर बरखा-रुत में वो भादों थी या सावन था
दीवार पे बीच समुंदर के ये देखने वालों ने देखा
मस्ताना हाथ में हाथ दिए ये एक कगर पर बैठे थे
यूँ शाम हुई फिर रात हुई जब सैलानी घर लौट गए
क्या रात थी वो जी चाहता है उस रात पे लिक्खें अफ़साना
इस बस्ती के इक कूचे में इक ‘इंशा’ नाम का दीवाना
हाँ उम्र का साथ निभाने के थे अहद बहुत पैमान बहुत
वो जिन पे भरोसा करने में कुछ सूद नहीं नुक़सान बहुत
वो नार ये कह कर दूर हुई ‘मजबूरी साजन मजबूरी’
ये वहशत से रंजूर हुए और रंजूरी सी रंजूरी?
उस रोज़ हमें मालूम हुआ उस शख़्स का मुश्किल समझाना
इस बस्ती के इक कूचे में इक ‘इंशा’ नाम का दीवाना
गो आग से छाती जलती थी गो आँख से दरिया बहता था
हर एक से दुख नहीं कहता था चुप रहता था ग़म सहता था
नादान हैं वो जो छेड़ते हैं इस आलम में नादानों को
उस शख़्स से एक जवाब मिला सब अपनों को बेगानों को
‘कुछ और कहो तो सुनता हूँ इस बाब में कुछ मत फ़रमाना’
इस बस्ती के इक कूचे में इक ‘इंशा’ नाम का दीवाना
अब आगे का तहक़ीक़ नहीं गो सुनने को हम सुनते थे
उस नार की जो जो बातें थीं उस नार के जो जो क़िस्से थे
इक शाम जो उस को बुलवाया कुछ समझाया बेचारे ने
उस रात ये क़िस्सा पाक किया कुछ खा ही लिया दुखयारे ने
क्या बात हुई किस तौर हुई अख़बार से लोगों ने जाना
इस बस्ती के इक कूचे में इक इंशा नाम का दीवाना
हर बात की खोज तो ठीक नहीं तुम हम को कहानी कहने दो
उस नार का नाम मक़ाम है क्या इस बात पे पर्दा रहने दो
हम से भी तो सौदा मुमकिन है तुम से भी जफ़ा हो सकती है
ये अपना बयाँ हो सकता है ये अपनी कथा हो हो सकती है
वो नार भी आख़िर पछताई किस काम का ऐसा पछताना?
इस बस्ती के इक कूचे में इक ‘इंशा’ नाम का दीवाना
तो कैसी लगी दोस्तों Ibn E Insha, के शेर, शायरी, Ibn E Insha की ग़ज़लें और Ibn E Insha Nazm ? मज़ा आ गया न,? सच में अच्छी शायरी में जो सुकून मिलता है, उसे आप बयां नहीं कर सकते, सिर्फ महसूस कर सकते हैं। मुझे पूरा यकीन है कि, आप भी Ibn E Insha Poetry के फैन बन गए होंगे, अगर आप अब तक नहीं थे तो।
चलिए फिर मुलाकात होगी जल्दी ही कुछ और शायरी के साथ। अगर पोस्ट आपको पसंद आयी हो तो प्लीज शेयर करना न भूलें।
धन्यवाद आपके समय का !