न जाने कब तिरे दिल पर नई सी दस्तक हो मकान ख़ाली हुआ है तो कोई आएगा बशीर बद्र

कोई मेरे दिल से पूछे  तिरे तीर-ए-नीम-कश को ये ख़लिश कहाँ से होती  जो जिगर के पार होता मिर्ज़ा ग़ालिब

मिलाते हो उसी को ख़ाक में जो दिल से मिलता है मिरी जाँ चाहने वाला बड़ी मुश्किल से मिलता है दाग़ देहलवी

हम ने सीने से लगाया दिल न अपना बन सका मुस्कुरा कर तुम ने देखा दिल तुम्हारा हो गया जिगर मुरादाबादी

तुम्हारा दिल मिरे दिल के बराबर हो नहीं सकता वो शीशा हो नहीं सकता ये पत्थर हो नहीं सकता दाग़ देहलवी

दिल आबाद कहाँ रह पाए उस की याद भुला देने से कमरा वीराँ हो जाता है इक तस्वीर हटा देने से जलील ’आली’

दिल ना-उमीद तो नहीं नाकाम ही तो है लम्बी है ग़म की शाम मगर शाम ही तो है फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

रंजिश ही सही दिल ही दुखाने के लिए आ आ फिर से मुझे छोड़ के जाने के लिए आ अहमद फ़राज़