फ़र्ज़ करो ये जी की बिपता जी से जोड़ सुनाई हो फ़र्ज़ करो अभी और हो इतनी आधी हम ने छुपाई हो
'इंशा'-जी उठो अब कूच करो इस शहर में जी को लगाना क्या वहशी को सुकूँ से क्या मतलब जोगी का नगर में ठिकाना क्या
अपनी ज़बाँ से कुछ न कहेंगे चुप ही रहेंगे आशिक़ लोग तुम से तो इतना हो सकता है पूछो हाल बेचारों का
~ शायरी इब्ने इंशा की ~
इस शहर में किस से मिलें हम से तो छूटीं महफ़िलें हर शख़्स तेरा नाम ले हर शख़्स दीवाना तिरा
~ शायरी इब्ने इंशा की ~
एक से एक जुनूँ का मारा इस बस्ती में रहता है एक हमीं हुशियार थे यारो एक हमीं बद-नाम हुए
~ इब्ने इंशा शायरी ~
कल चौदहवीं की रात थी शब भर रहा चर्चा तिरा कुछ ने कहा ये चाँद है कुछ ने कहा चेहरा तिरा
~ इब्ने इंशा शायरी ~
कुछ कहने का वक़्त नहीं ये कुछ न कहो ख़ामोश रहो ऐ लोगो ख़ामोश रहो हाँ ऐ लोगो ख़ामोश रहो
~ Ibn E Insha Shayari ~
'मीर' से बैअत की है तो 'इंशा' मीर की बैअत भी है ज़रूर शाम को रो रो सुब्ह करो अब सुब्ह को रो रो शाम करो
~ शायरी इब्ने इंशा की ~