ख़्वाब की तरह बिखर जाने को जी चाहता है ऐसी तन्हाई कि मर जाने को जी चाहता है इफ़्तिख़ार आरिफ़
आँखों में जो भर लोगे तो काँटों से चुभेंगे ये ख़्वाब तो पलकों पे सजाने के लिए हैं जाँ निसार अख़्तर
उस रोज़ जो उन को देखा है अब ख़्वाब का आलम लगता है उस रोज़ जो उन से बात हुई वो बात भी थी अफ़साना क्या इब्न-ए-इंशा
देखो ये मेरे ख़्वाब थे देखो ये मेरे ज़ख़्म हैं मैं ने तो सब हिसाब-ए-जाँ बर-सर-ए-आम रख दिया अहमद फ़राज़