ख़्वाब की तरह बिखर जाने को जी चाहता है ऐसी तन्हाई कि मर जाने को जी चाहता है इफ़्तिख़ार आरिफ़

हर एक रात को महताब देखने के लिए मैं जागता हूँ तिरा ख़्वाब देखने के लिए अज़हर इनायती

आशिक़ी में 'मीर' जैसे ख़्वाब मत देखा करो बावले हो जाओगे महताब मत देखा करो अहमद फ़राज़

यही है ज़िंदगी कुछ ख़्वाब चंद उम्मीदें इन्हीं खिलौनों से तुम भी बहल सको तो चलो निदा फ़ाज़ली

आँखों में जो भर लोगे तो काँटों से चुभेंगे ये ख़्वाब तो पलकों पे सजाने के लिए हैं जाँ निसार अख़्तर

उस रोज़ जो उन को देखा है अब ख़्वाब का आलम लगता है उस रोज़ जो उन से बात हुई वो बात भी थी अफ़साना क्या इब्न-ए-इंशा

वो ख़्वाब जो बरसों से न चेहरा न बदन है वो ख़्वाब हवाओं में बिखर क्यूँ नहीं जाता निदा फ़ाज़ली

देखो ये मेरे ख़्वाब थे देखो ये मेरे ज़ख़्म हैं मैं ने तो सब हिसाब-ए-जाँ बर-सर-ए-आम रख दिया अहमद फ़राज़