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अपनी क़िस्मत में सभी कुछ था मगर फूल न थे तुम अगर फूल न होते तो हमारे होते
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" क़िस्मत अजीब खेल दिखाती चली गई जो हँस रहे थे उन को रुलाती चली गई ..."
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ये न थी हमारी क़िस्मत कि विसाल-ए-यार होता अगर और जीते रहते यही इंतिज़ार होता
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आज बरसों में तो क़िस्मत से मुलाक़ात हुई आप मुँह फेर के बैठे हैं ये क्या बात हुई
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वो भला पेच निकालेंगे मिरी क़िस्मत के अपने बालों के तो बल उन से निकाले न गए
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बेवफ़ा लोगों में रहना तिरी क़िस्मत ही सही इन में शामिल मैं तिरा नाम न होने दूँगा
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किसी को रश्क आए क्यूँ न क़िस्मत पर हमारी अब उजड़ आए हैं हर जानिब से बसना रह गया बाक़ी
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क़िस्मत ने दूर ऐसा ही फेंका हमें कि हम फिर जीते-जी पहुँच न सके अपने यार तक