इक रात वो गया था जहाँ बात रोक के अब तक रुका हुआ हूँ वहीं रात रोक के फ़रहत एहसास
ग़ज़ब किया तिरे वअ'दे पे ए'तिबार किया तमाम रात क़यामत का इंतिज़ार किया दाग़ देहलवी
सौ चाँद भी चमकेंगे तो क्या बात बनेगी तुम आए तो इस रात की औक़ात बनेगी जाँ निसार अख़्तर
कल चौदहवीं की रात थी शब भर रहा चर्चा तिरा कुछ ने कहा ये चाँद है कुछ ने कहा चेहरा तिरा इब्न-ए-इंशा