इक रात वो गया था जहाँ बात रोक के अब तक रुका हुआ हूँ वहीं रात रोक के फ़रहत एहसास

कब ठहरेगा दर्द ऐ दिल कब रात बसर होगी सुनते थे वो आएँगे सुनते थे सहर होगी फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

रात तो वक़्त की पाबंद है ढल जाएगी देखना ये है चराग़ों का सफ़र कितना है वसीम बरेलवी

हर एक रात को महताब देखने के लिए मैं जागता हूँ तिरा ख़्वाब देखने के लिए अज़हर इनायती

ग़ज़ब किया तिरे वअ'दे पे ए'तिबार किया तमाम रात क़यामत का इंतिज़ार किया दाग़ देहलवी

सौ चाँद भी चमकेंगे तो क्या बात बनेगी तुम आए तो इस रात की औक़ात बनेगी जाँ निसार अख़्तर

अपने जलने में किसी को नहीं करते हैं शरीक रात हो जाए तो हम शम्अ बुझा देते हैं सबा अकबराबादी

कल चौदहवीं की रात थी शब भर रहा चर्चा तिरा कुछ ने कहा ये चाँद है कुछ ने कहा चेहरा तिरा इब्न-ए-इंशा