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अब किसी दर्द का शिकवा न किसी ग़म का गिला मेरी हस्ती ने बड़ी देर में पाया है मुझे
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तुम इसे शिकवा समझ कर किस लिए शरमा गए मुद्दतों के बा'द देखा था तो आँसू आ गए
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नहीं शिकवा मुझे कुछ बेवफ़ाई का तिरी हरगिज़ गिला तब हो अगर तू ने किसी से भी निभाई हो
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फ़लक से मुझ को शिकवा है ज़मीं से मुझ को शिकवा है यक़ीं मानो तो ख़ुद अपने यक़ीं से मुझ को शिकवा है
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वो करें भी तो किन अल्फ़ाज़ में तेरा शिकवा जिन को तेरी निगह-ए-लुत्फ़ ने बर्बाद किया
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शिकवा कोई दरिया की रवानी से नहीं है रिश्ता ही मिरी प्यास का पानी से नहीं है
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पलट गईं जो निगाहें उन्हीं से शिकवा था सो आज भी है मगर देर हो गई शायद
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क्यूँ 'मुनीर' अपनी तबाही का ये कैसा शिकवा जितना तक़दीर में लिक्खा है अदा होता है