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ज़िंदगी तुझ को तिरे दर्द के हर इक पल को हम ने जिस तरह गुज़ारा है ख़ुदा जानता है
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बंद कमरे में तिरा दर्द न बुझ जाए कहीं खिड़कियाँ खोल कि ये आग हवा चाहती है
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इक अज़िय्यत है तो लज़्ज़त भी तिरे दर्द में है बे-सुकूनी में भी आराम बहुत आता है
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हज़ार दर्द समेटे हुए हूँ इक दिल में बिखर गई जो मिरी दास्ताँ तो क्या होगा
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हम दर्द के मारे ही गिराँ-जाँ हैं वगर्ना जीना तिरी फ़ुर्क़त में कुछ आसाँ तो नहीं है
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कौन सा दर्द उतर आया है तहरीरों में सारे अल्फ़ाज़ जनाज़े की तरह लगते हैं
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सूख गई जब आँखों में प्यार की नीली झील 'क़तील' तेरे दर्द का ज़र्द समुंदर काहे शोर मचाएगा
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पास जब तक वो रहे दर्द थमा रहता है फैलता जाता है फिर आँख के काजल की तरह